सासाराम में उत्पादित होता है व्रतधारियों का आहार

सूखा हुआ सिंघाड़ा

पानी फल सिंघाड़ा की खेती जिले में लघु उद्योग का रूप लेती जा रही है। सिंघाड़ा उत्पादक किसानों के अलावा इससे जुड़े मजदूरों के लिए इसकी खेती रोजगार का मुख्य साधन बन गई है। सासाराम के सागर मुहल्ले के दर्जनों परिवार इस व्यावसायिक खेती की बदौलत अपनी जिंदगी संवार रहे हैं। पानी फल सिघाड़ा की खेती कर उसे सूखाकर उसका छिलका उतारने का काम अब धीरे-धीरे लघु उधोग का रूप ले चुका है। उत्पादक समेत अन्य लोग इस व्यवसाय से आम के आम और गुठली के भी दाम वसूल रहे हैं। सीजन में सिंघाड़ा को सूखा कर रख लेते हैं। बरसात के दिनों में इस फल का उत्पादन अधिक होने से बाजार में इसका भाव कम मिलता है। जिसके कारण इस फल का उत्पादन करने वाले किसान इसे बेचने की बजाए इकट्ठा कर लेते हैं। जैसे ही त्योहारों का मौसम शुरू होता है, ठीक उसके पहले सूखे हुए सिंघाड़ा का छिलका उतार लेते हैं। सीजन में इसे ऊंचे दाम पर बनारस से लेकर अन्य बड़े शहरों से आने वाले व्यवसायियों के हाथ बेचते हैं। इतना ही नहीं गुठली के दाम के तौर पर सिंघाडा के सूखे छिलके को जलावन के रूप में प्रयोग करते हैं, जो उनके लिए बोनस साबित होता है। जिससे उत्पादन करने वाले किसानों के अलावा आसपास के सैकडों घरों के भी चूल्हे जलते हैं। अमूनन बाजार में कच्चा पानी फल सिंघाडा की कीमत 25 से 30 रुपया किलो होता है। वहीं इसे सूखाकर फल निकाल लेने व आटा बना लेने के बाद इसकी कीमत 160 से 180 रुपया किलो तक पहुंच जाती हैं।

वही पानी फल सिंघाड़ा के कई गुण है। जानकारों की माने तो पानी फल सिंघाड़ा में कैल्सियम की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। हड्डी से संबंधित रोगों में यह सहायक सिद्ध होता है। पेट संबंधी बिमारियों को दूर करने में भी यह काफी कारगर है। सीजन में तो इस विशेष फल को खाने का एक अलग ही मजा हैं, परंतु त्योहार और व्रत के समय व्रतियों में इस फल को कूटकर हलवा बनाकर खाने का प्रचलन भी काफी पुराना है।

सिंघाड़ा उत्पादन करने वाले उत्पादक किसान रामायण चौधरी, धनराज चौधरी, ललन चौधरी कहते है कि, यहाँ बनारस के काफी संख्या में व्यापारी सूखा सिंघाडा खरीदने आते हैं। यहां से उत्पादित माल बनारस समेत अन्य बड़ी मंडियों में भेजा जाता हैं। हालांकि बाजार के अभाव में इससे जितना मुनाफा किसानों को होना चाहिए, नहीं हो पाता। उनका कहना है कि यदि शहर में नगर परिषद इसके लिए एक विशेष केंद्र स्थापित करें, तो इस उद्योग को भी एक नई पहचान मिल सकती हैं। सासाराम और आसपास के इलाकों में तालाब-पोखर की संख्या अतिक्रमण के कारण घटती जा रही है। यदि तालाब-पोखर का संरक्षण और बंदोबस्ती करते हुए सरकार द्वारा अनुदानित बीज, दवाई का प्रबंध कर इसका उत्पादन सुनियोजित नीति के तहत किया जाए, तो यह धंधा और बड़ा रूप ले सकता है। इस कार्य से गरीब परिवार की महिलाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार मिल सकता है।

– सतीश कुमार, दैनिक जागरण की रिपोर्ट 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here